Thursday, 3 August 2017

निगाह

आंख झरोखा है जिससे होकर रूह झांकती है बाहर...देखती है और खुश हो जाती है कभी, तो कभी धोखा भी खा बैठती है, क्योंकि जो दिख रहा है शायद वो नहीं निकला जो लगा कि शायद वही है।

आंखे ही हैं जो दिमाग के चलाये चलें और चलाएं भी दिमाग को। देख लेती हैं वो सब जो है सामने और जो दिख रहा है।
मगर कुछ ऐसा भी है जो ना देख पाती हैं और इसी बहाने रो कर साफ हो जाया करती हैं कई मर्तबा। (कई दफा/कई बार)
सुनी है मैंने कहानी उस बच्चे की जिसे सबकुछ, हरकोई अच्छा लगता 

एक बात तो है कि जब आंखें ना पहचान पाएं तो दिल ही है जो कुछ इल्म रखता है कि क्या है जिससे तुम रूबरू हो!
एक आवाज़ होती है हमेशा कहीं दूर दिल में जो बता रही होती है कि ऐसा कर ले!, मगर फिर भी हैम वो कर बैठते हैं जो दिल ने गवाही नहीं दी करने को।
शायद हम बिल्कुल नई चाहते उस आवाज़ को सुनना मगर सच तो ये है कि ज़्यादातर वो अंदरूनी आवाज़ शायद हमारी आंखों से भी बेहतर देख पा रही होती है...दिल है।
कर लिया अगर यकीन थोड़ा सा और थोड़ा वक़्त अगर ले लिया कुछ चीज़ों को अंजाम देने से पहले तो शायद बेहतर हो जाये आने वाला वक़्त !

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